Friday, October 18, 2024

समर्पण का ताने और करुणा के बाने पर स्वदेशी कपड़ा बुनता एक ममतामयी संकल्प - त्रिंजन

 इस दीवाली पर्व पर रचना ,कला और कारीगरी के संघर्ष को अपनी उत्सवधर्मिता अर्पण करें 

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२००५ में खेती विरासत मिशन की शुरुआत हुई और जिन किसानों ने उसकी नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई , जो खेती विरासत मिशन के संघर्ष के साक्षी बने , जिन्होंने खेती और पर्यावरण को ज़हरमुक्त बनाने के लिए अपना बहुत कुछ दांव पर लगा दिया था उनमें मालवा क्षेत्र के गावों में कपास की खेती करने वाले किसान ही अग्रणी थे। इन में हरतेज सिंह मेहता , विनोद ज्याणी , अमरजीत शर्मा , स्वर्ण सिंह और हरजंत सिंह प्रमुख नाम थे। जिन्हें तब पागल भी कहा गया था। जब सब सरकारें , राजनीतिक दल , कृषि विश्वविद्यालय और अधिकाँश वैज्ञानिकों ने बी टी कपास को लाने के लिए जोर लगाया हुआ था तब यही किसान थे जो कह रहे थे " हम बी टी को अपने खेतों में नहीं आने देंगे , हम ज़हरमुक्त प्राकृतिक खेती ही करेंगे।" शुरुआत के दस वर्षों तक प्राकृतिक कपास की खरीद की कोई व्यवस्था न होने के कारण यह किसान अपनी ज़हरमुक्त कपास -नरमे को खुले बाजार में ही बेचने को मज़बूर थे।
फिर २०१५ में खेती विरासत मिशन ने कुछ किसानों की प्राकृतिक खेती से उगाई देसी कपास खरीदी। कुछ समय यह कपास ऐसे ही इधर उधर पड़ी रही। फिर कभी क्रांतिकारी अमनजोत कौर द्वारा प्रशिक्षित घरेलू जैविक बगीची के लिए खड़ी की गई टोली की नायकाओं सरबजीत कौर , परमजीत कौर और संतोष कुमारी के प्रयासों से जैतो के निकटवर्ती गावों में चरखे पर सूत कातने वाली महिलाओं को ढूंढा गया और उन्हें जैविक -प्राकृतिक कपास दी गई और ऐसे त्रिंजन की नींव पड़ी। अब सूत कात कर उसके ढेर हम खेती विरासत मिशन कार्यालय में रखते जा रहे थे। तब हमारे में से किसी ने नहीं सोचा था कि हम कभी प्राकृतिक कपास से हथकरघे का कपड़ा भी बनाएंगे। परन्तु शायद नियति किसी और के आने की प्रतीक्षा कर रही थी।
प्राकृतिक कपास के चरखे पर बने सूत से कपड़ा बनने का यह महत्वपूर्ण कार्य सम्भव हो सका २०१८ में रूपसी गर्ग के खेती विरासत मिशन से जुड़ने के बाद । ग्राम स्वराज की कल्पना को साकार करने की ललक से भरी हुई कुमारी रूपसी गर्ग संयोग से ही खेती विरासत मिशन में आई और मात्र एक वर्ष बाद वो बुनकरों और कारीगरों के बीच थी। २०१८ में कपड़ा बनाने के प्रयोग शुरू हुए और २०१९ में त्रिंजन का प्राकृतिक शुद्ध खादी का कपड़ा हमारे हाथ में था और हमने उसे पहनना शुरू किया।
जब त्रिंजन शुरू हुआ तो मात्र ६ किसान प्राकृतिक खेती में कपास ऊगा रहे थे और आज ३५ से ज्यादा किसान प्राकृतिक कपास की खेती कर रहे हैं। अनेक कतिय सूत कात रहे हैं और कितने ही बुनकर हथकरघे पर विशुद्ध प्राकृतिक खादी का कपड़ा बुन रहे हैं।
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कई मित्रों ने त्रिंजन का प्राकृतिक कपड़ा देखा होगा। यह कपड़ा ज़हरमुक्त तो है ही - यह पूर्णतः देसी , गैर बी टी और प्राकृतिक खेती से उगाई कपास से ही बना है। यह कपड़ा कोई साधारण कपड़ा नहीं है। इस कपड़े को बनाने के पीछे एक मौन साधना है, एक निःस्वार्थ सेवा की भावना और ग्राम स्वराज के स्वप्न को साकार करने के लिए अपने सुख और भौतिक जीवन की सांसारिक आकाँक्षाओं को होम कर देने की 'सरफरोश तमन्ना ' है। यह पंजाब में बुनकरी की कला , उसकी कला और तकनीक को सहेजने , उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का संकल्प है। त्रिंजन का कपड़ा बुनकरों को सम्मान देने , उनकी ज्ञान परम्परा को प्रतिष्ठा देने और प्राकृतिक खेती से कपास पैदा करने के विकट चुनौती को स्वीकारने वाले किसानों का हाथ थामने की , उनके सहयोगी बनने की भीष्म प्रतिज्ञा भी है।
त्रिंजन का कपड़ा अर्थात पंजाब , हरियाणा और राजस्थान के कपास क्षेत्र को ज़हरमुक्त बनाने के भीषण संघर्ष का एक रचनात्मक आयाम है। त्रिंजन कोई उद्योग नहीं है , पैसा कमाने के लिए शुरू किया गया कोई व्यापार नहीं है यह भारत के समकालीन स्वदेशी आंदोलन का व्यवहारिक रूप है। इस के लिए अपने जीवन के सुख -सुविधा और आधुनिक शिक्षा ले कर भी किसी स्वर्णिम भविष्य के 'कैरियर ' की आहुति दे रही है हमारी रूपसी गर्ग। यह युवती एक स्वतंत्रता सैनानी की भांति सब कुछ दांव पर लगा कर ग्राम स्वराज का यह प्रयोग करने को कृतसंकल्प है। उसने अपनी ममता त्रिंजन पर ही उंडेल दी है। वह अकेले ही एक साथ ५ -६ लोगों का कार्य कर रही है। अपनी नींद , भोजन , आराम और रुचियों को भस्म करके एक तरफ किसानों से कपास की खेती के मुद्दों को सुलझाती है और कपास की खरीद को सुनिश्चित करने , किसानों को बाजार भाव से अधिक दाम देने के लिए प्रयास करती दिखती है तो दूसरी तरफ बुनकरों और कारीगरों की समस्याओं , उनकी आवश्यकताओं की चिंता भी करती है। फिर बुनकरों में हुनर के विकास एवं ओर ज्यादा अच्छे कपड़े की बुनाई के लिए डिज़ाइन और हथकरघे -खडी में निरंतर सुधार के लिए भी परिश्रम कर रही है। किसी सुदूर राज्य में अनुभवी एवं प्रतिष्ठित खादी एवं हथकरघे की पुरानी संस्था से तालमेल करना हो अथवा किसी बड़े तकनीकी आधुनिक संस्थान से सीखने के लिए कोई सहकार्य सुनिश्चित करना। सब कुछ के पीछे रूपसी ही रहती है। तीसरी तरफ चूँकि अभी सूत कातने वाले लोग कम हैं सो सारी की सारी कपास अभी चरखे से नहीं काती जा सकती , इसलिए किसी उद्योग से तालमेल करके मशीन पर प्राकृतिक कपास का ज़हरमुक्त कपड़ा बनवाने के लिए भी अपनी पूरी जान लगा देती है। कपास भेजना , उसका धागा बनवाना , फिर कपड़ा बनवाना , कपड़े का डिज़ाइन तय करना। उसका हिसाब -किताब रखना। चौथी तरफ इस कपड़े की बिक्री के लिए लोगों से बात करनी , जगह -जगह जा कर स्टाल लगाने , स्वयं जा जा कर प्रदर्शनी लगानी। काम यही खत्म नहीं होता। कपड़ों की प्राकृतिक रंगाई करवानी , लोगों को सुरुचिकर कपड़ा पहनना पसंद है सो अनेक जगह से प्रिंट और छापा वाला कपड़ा बनवाना। और अब त्रिंजन के कपड़े से रेडीमेड कुर्ते-पैजामे , सलवार-कमीज़ , शर्ट-पैंट और अन्य तरह के रेडीमेड कपड़े बनवाने लिए कितनी कितनी जगह बात करनी। इतना ही नहीं आज त्रिंजन एक बुनकर पाठशाला भी चला रहा है। जिसमें नए बुनकरों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। फ़िलहाल यह त्रिंजन पाठशाला एक छोटे भवन में चल रहा है। जहां मात्र ६ ही हथकरघे लगे हैं। पाठशाला के विस्तार का भी प्रयास हो रहा है। रूपसी के योग्य नेतृत्व में त्रिंजन अपने किसानों , कारीगरों और बुनकरों के लिए स्वयं साधन जुटा रहा है और अपना प्रशिक्षण ढांचा खड़ा करने के लिए संघर्ष कर रहा है। जैतो में बुनकरों के लिए " जीवन शाला " का निर्माण कर रहा है, जहां बुनकर पाठशाला को स्थानांतरित किया जाएगा । भवन निर्माण की निगरानी और हिसाब-किताब हमारी प्रिय रूपसि का ही दायित्व है।
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इतने परिश्रम के बाद भी सेनानी रूपसी के काम खत्म नहीं होते। उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या में चरखा चलाना तो है ही , वो घंटों-घंटों खादी के तौलिए जो बन कर आये हैं , उनके फ़ालतू धागों को काटना और किनारों के बमबल बना कर उन्हें अंतिम रूप बिक्री के लिए अपने हाथ से तैयार करती है। और फिर उन तोलियों को प्रेस किया जाता है। कभी कोई सहयोगी मिल जाये तो ठीक है अन्यथा रूपसी स्वयं ही यह परिश्रम साध्य कार्य करती है। उसका यह समर्पण देख मैं उसके प्रति श्रद्धा से भर जाता हूँ। अपने उद्देश्य के प्रति रूपसी की लगन देख कर मुझे अनायास ही कुछ महिलाओं की याद आ जाती है जिनके प्रति मैं गहरी श्रद्धा रखता हूँ। सुनीता नारायण , डा वंदना शिवा और कविता कुरुगंटी को मैंने कुछ हद तक निकट से प्रचंड परिश्रम करते देखा है और अब रूपसी को देख कर मेरी वो अवधारणा और भी दृढ़ हो जाती है है की हमारी मातृ शक्ति अपने स्वभाव , प्रकृति और संस्कार से पर्यावरण की संरक्षक है। तभी तो चिपको आंदोलन के लिए बलिदान देने वाली अमृता देवी बिश्नोई होती है तो हिमालय के चिपको आंदोलन की संस्थापक गौरां देवी होती है।
कभी कभी यह भी लगता है कि कुछ अर्थों में रूपसी का संघर्ष इन महान महिलाओं से भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। रूपसी वास्तव में एक योद्धा महिला है। पंजाब में पटियाला जिले के छोटे से गांव शम्भू तेपला के साधारण मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी और दसवीं तक उसी गांव के सरकारी विद्यालय में पढ़ने के बाद अम्बाला के एक महाविद्यालय से बायो टेक्नोलॉजी में बी.टेक. करने के बाद हैदराबाद के प्रतिष्ठित सेन्टर फॉर सेलुलर एण्ड मॉलिक्युलर बाओलोजी ( सी सी एम बी ) में जूनियर रिसर्च फेलो बनी। सी सी एम बी हैदराबाद में काम करते करते एक दिन रूपसी ने टीवी पर एक ऐसा साक्षात्कार देखा-सुना जिसने उसके मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला। जो टी वी से निकल कर उसके भीतर की चेतना और चिन्तन प्रक्रिया से एकाकार ही हो गया। मेरे लिए भी गुरु का कार्य करने वाले सुप्रसिद्ध लेखक , भारतीय ज्ञान परम्परा के महान साधक , महात्मा गाँधी के मूल्यों को अपने दैनंदिन जीवन में उतारने वाले भाई अनुपम मिश्र का यह साक्षात्कार एनडीटीवी के प्राइम टाइम में लिया था पत्रकार रवीश ने। इस साक्षात्कार में अनुपम भाई द्वारा व्यक्त भावों और सोने के गहनों में हीरे -मोती के मानिंद जड़े उनके शब्दों ने रूपसी में सी सी एम बी की प्रयोगशाला की कोठरियों से बाहर हमारे देश -हमारे गावों में फैले जीवन की ऊंचाई - गहन गहराई को मापने के लिए व्यथित कर दिया। अपने देश , अपने जीवन और उसकी सार्थकता को नए सिरे से तलाशने के लिए उसके अंतर में एक अग्निशिखा प्रज्वलित कर दी। भाई अनुपम मिश्र के शब्दों ने रूपसी को गावों की ओर चलने और अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए इतना प्रेरित किया कि उसने सी सी एम बी, हैदराबाद छोड़ने का निर्णय कर लिया। उसने अपने जीवन की दिशा गावों में सर्वदूर व्याप्त समाज शास्त्र , लोक विज्ञान , कला और उत्सवपरता की और मोड़ दी। रूपसी ने सीसीएमबी , हैदराबाद छोड़ने के बाद बैंगलोर के अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ( ए पी यू ) से मास्टर्स इन डेवलपमेंटल स्टडीज़ में प्रवेश लिया और वहीं महात्मा गाँधी की लिखी छोटी सी पुस्तिका "ग्राम स्वराज" रूपसी के हाथ लगी और उसके आगामी जीवन में गाँव , उनकी कला , उनके कारीगर और सादगी और भी ज्यादा गहराई से स्थापित हो गए। ए पी यू में ही उसे गाँधी जी का बॉक्स चरखा भी अपनी एक सहपाठी के पास मिला और वो उस पर हाथ आजमाने लगी। अब वो चरखा चलने वाली और गाँधी जी के ग्राम स्वराज को साकार करने के स्वप्न देखने लगी। उसने भारतीय कला परम्परा के साधक श्री रवींद्र शर्मा गुरु जी की वार्ता सुननी समझनी शुरू की और स्वयं को उसी विचार और कल्पना को समर्पित करने का मन बना लिया।
जब उसके तमाम सहपाठी कैम्पस प्लेसमेंट से बड़ी बड़ी कम्पनियों में या सरकारी संस्थानों में भारी भरकम वेतन वाली नौकरियों में जा रहे थे तब उस प्रवाह के विपरीत उसने बिना वेतन के खेती विरासत मिशन में काम करने का दुसाहसपूर्ण निर्णय लिया। त्रिंजन का दायित्व सम्भालने के बाद से रूपसी ने स्वयं को पूरी तरह कला और कारीगरी के लिए झोंक दिया। आज बहुत जगह त्रिंजन की बात होती है। त्रिंजन और रूपसी के कारण खेती विरासत मिशन और मुझे भी सम्मान मिलता है तो रूपसी पर गर्व होता है। त्रिंजन का समूचा प्रकल्प , बुनकर पाठशाला , निर्माणाधीन जीवनशाला , देसी प्राकृतिक कपास से बना विशुद्ध खादी का कपड़ा रूपसी की अनथक साधना का मूर्त रूप है। त्रिंजन की नन्ही सी कोंपल को रूपसी ने अपने खून , पसीने और आंसुओं से सींच कर एक बड़ा पौधा बना दिया है। जिसमें विराट वृक्ष बनने के सम्भावना आज सभी को दिखने लगी है। हमारे आसपास के किसान , बुनकर , कारीगर , खेती विरासत मिशन के हमारे पुराने साथी , शुभचिन्तक और सहयोगी आज रूपसी और त्रिंजन की तरफ बड़ी आशा से देख रहे हैं और रूपसी का , उसकी सहयोगी टोली में शिंदर कौर , गुरमीत कौर , रमनदीप कौर , स्नेह , रेखा रानी , राजपाल कौर , गुरविंदर शर्मा , हरनेक सिंह सभी आपने अपने ढंग से इस साधना में योगदान डाल रहे हैं। यह सभी रूपसी के सहयात्री हैं जो त्रिंजन के भविष्य को ले कर आशान्वित हैं।
त्रिंजन के वर्तमान भव्य बनते जा रहे स्वरूप में २०१९ में त्रिंजन के शुरूआती दिनों में रूपसी के दाहिने हाथ के रूप काम कर चुके हमारे युवा साथी सौरभ सैनी के अनथक परिश्रम का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। सौरभ ने वास्तव में त्रिंजन को अपने जीवन , अपनी भावनाओं और आकाँक्षाओं में ही उतार लिया था. फिर प्रबंधन से ले कर कड़ी मेहनत वाली मज़दूरी सरीखा कोई काम हो सभी को उसने हस किया. वह रूपसी का अनन्य एवं विश्वस्त सहयोगी बन कर त्रिंजन को स्थापित करने में जुटा रहा।
त्रिंजन की इस सृजन -यात्रा में उल्लेखनीय भूमिका निभाने में और त्रिंजन के स्वप्न को साकार करने के लिए अपना समय और साधन झोंक देने वालों में ढिंगावली गाँव के प्राकृतिक खेती किसान सुरेंद्र पाल सियाग , कोटकपूरा के जगतार धालीवाल और चैना गाँव के गोरा सिंह बराड़ की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सुरिंदर पाल जी रूपसी के साथ त्रिंजन का दूसरा मुख्य पहिया बन कर महान परिश्रम कर रहे हैं। फिर प्राकृतिक कपास किसान हरतेज सिंह मेहता , विनोद ज्याणी , कंवरजीत बराड़ , स्वर्ण सिंह, हरजंत सिंह , जय पाल पूनिया के जीवट और बी टी मुक्त प्राकृतिक देसी कपास उगाने की प्रतिबद्धता का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। इन किसानों की एक जिद के कारण ही त्रिंजन लगातार अपनी यात्रा में आगे बढ़ता रहा। आज त्रिंजन पंजाब में हथकरघे पर देसी खादी बुनने का प्रतीक बन गया है। यह ग्राम स्वराज , स्वदेशी और कला - कारीगरी का संरक्षण केंद्र बन गया है। इसे और सहयात्रियों की आवश्यकता है। त्रिंजन को सभी सुहृद और प्रकृति में श्रद्धा रखने वाले महानुभावों के स्नेह , आशीर्वाद और उदार हृदय से सहयोग की नितांत आवश्यकता है। रूपसी की , उसके बुनकर सहयोगी-सखियों और त्रिंजन के लिए प्राकृतिक कपास उगाने वाले खेती विरासत मिशन के किसानों की इस रचनात्मक सृजन -साधना में सहयोगी बनना हम सभी का कर्तव्य है।
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दीपावली आ रही है। हमारे में से बहुत से लोग नए कपड़े खरीदेंगे। आज त्रिंजन के पास बड़ी मात्रा में प्राकृतिक विशुद्ध खादी का कपड़ा बिक्री के लिए पड़ा है। क्या आप अपने घर, दुकान और कार्यालय के परदे , चादरें , तौलिए और अपने पहनने के लिए त्रिंजन के ज़हरमुक्त , हथकरघे पर बने कपड़े खरीद सकते हैं ? आपकी दीपावली की खरीददारी प्राकृतिक खेती को समर्पित किसानों , पारम्परिक कला और बुनकरी की धरोहर सहेजने को प्रतिबद्ध बुनकरों की सहायता कर सकती है।
आइए ! इस दिवाली की खुशियों को त्रिंजन की साधनारत टोली से बाँटें।





Thursday, June 9, 2016

Sustainable Productivity and Soil Fertility through Enhanced Soil Biology By Dr Om Rupela

Sustainable Productivity and Soil Fertility through Enhanced Soil Biology

Om Rupela
Former Scientist, International Crops Research Institute for the Semi-Arid Tropics (ICRISAT),    Patancheru, 502324, Andhra Pradesh, India
E-mail: oprupela@gmail.com, Phone: 9490621798

India’s growing population needs a proportional increase in food production. Much of the land is already under agriculture and therefore the needed increase in production has to primarily come from increased productivity (yield per unit land) including reduced pest damage. For at least the last five decades, the agricultural research and education system has focused on agrochemicals - Green Revolution (GR) technologies, including development of genetically modified (GM) or transgenic crops. This has in turn influenced the agricultural research for development (AR4D) paradigm and the resultant policies. Initially, productivity under GR based agriculture increased substantially and helped India come out of the low-yield phase and made India food secure. But over the past decade or so the productivity increase has been essentially stagnant [Chand and Haque 1998, Economic and Political Weekly 33(26): A 108-112]. In addition, after 30 years of using GR technologies, concerns about agrochemicals in particular, human health and environmental issues, have arisen (www.gcrio.org/ipcc/techrepI/agriculture.html). Also, if in the seventies India was importing food grains, today it is importing much of the fertilizers (about 60% of nitrogenous, 80% of phosphatic and 100% of potassic fertilzers) needed for producing this food grain. Contrary to the impression being created, India is thus not a food secure nation.

In the past 20 years or so, organic or ecological farming has emerged as an effective alternative to the agrochemical-based modern or conventional agriculture. Ecological farming is based on sound scientific principles. Several farmers using good agricultural practices (without agro-chemicals) have claimed harvesting yields comparable to those of neighboring farmers who use agro-chemicals (http://infochangeindia.org/ agenda/agricultural-revival/the-new-natural-economics-of-agriculture.html). Several review papers and publications (http://www.indiawaterportal. org/search/node/o.p.%20rupela), including some from UN-FAO, (http://www.fao.org/docs/eims/upload/275960/al185e.pdf) have reported results in favor of this type of farming. This paper discusses plausible explanations on how such farms (without agrochemicals) may have yields comparable to farms where agrochemicals are used, but restricts on soil fertility and plant nutrition aspects.

A crop needs several organic elements like vitamins and growth hormones, and inorganic (or atomic) elements and these constitute its cells (constitutive) or participate in its metabolism (non-constitutive).  Four of the vital constitutive elements are carbon (C), oxygen (O), hydrogen (H) and nitrogen (N). Thirty elements may come from soil and they form only 2 to 8% of body dry mass of a plant. Name of most of these can be found in books written on soil science and plant nutrition. Claude Bourguignon (English translation ‘Regenerating the Soil’, pages 188, published in 1998 by Other India Press, Goa, India - original book in French) called twelve of these as vital or essential elements for plant growth. Crop yield may suffer if their available concentration in soil is below a threshold limit (as studied and reported by several research publications) and their deficiency in soil shows up readily through characteristic symptoms on different plant parts. Two of the 12 elements potash (K) and chlorine (Cl) are non-constitutive. The other ten elements are constitutive and these are - phosphorus (P), boron (B), calcium (Ca), magnesium (Mg), sulfur (S), iron (Fe), manganese (Mn), molybdenum (Mo), copper (Cu) and zinc (Zn). Eighteen other elements, also called secondary micro-nutrients or trace elements are required in very small quantities. Function of some of these is not fully understood. Four of the 18 – lithium (Li), sodium (Na), rubidium (Rb) and cesium (Cs) are non-constitutive. The other 14 are constitutive. These are fluorine, (F), silicon (Si), selenium (Se), cobalt (Co), iodine (I), strontium (Sr), barium (Ba), aluminium (Al), vanadium (V), tin (Sn), nickel (Ni), chromium (Cr), beryllium (Be) and bromine (Br). It is important to note that only three of the over 30 elements - nitrogen (N), phosphorus (P), and potassium (K), widely known as major elements, are readily available in the market and proactively promoted by the AR4D system globally.

An important fact that gets missed, even by a large number of agricultural scientists, but which is essential to understand, is that the major part (92 to 98%) of the body mass (dry and not wet mass) of a plant is made of carbon, nitrogen, oxygen and hydrogen. It may be noted that all the four are gases. One can confirm this from the fact that when the biomass of any plant is burnt, we get only 2 to 8% of the original weight of the burnt biomass as ‘ash’. The rest goes into air because they were gases. When we burn rice or wheat straw, we generally get about 2% of the original mass as ‘ash’ while it is about 8% in the case of woody plant parts, for example stems of pigeonpea plants. These four elements also occur in soils in other forms. Carbon molecules can also reach the plant through breakdown products of proteins and amino acids through the carbon skeleton. Nitrogen exists in several forms in the soil – ammonium ions, nitrates, amines etc., and can be taken up by plant roots. Hydrogen and oxygen are part of a water molecule. A plant assembles these elements during the photosynthetic process while growing under favorable conditions.

Micronutrients also include some plant growth factors such as vitamins and enzymes, which are organic compounds required as nutrients in tiny amounts. These are present in soils due to microorganisms and macro-fauna (like earthworms) resident in soils and are either excretory products of these living beings due to their normal life cycle in soils, or are available after their death. Most of these growth factors are also available on surfaces of roots where populations of microorganisms are abundant.
All the 30 mineral elements, described above, are available in most of the soils where crops are grown and in the plant biomass (leaves, branches, flowers, fruits) of every plant, but their composition/proportions differ between soil types, fields and from one plant part to another. Each of the 30 mineral elements exist in at least two forms – available or water soluble form and non-available or bound form. Much of the concentration of each of these nutrients in the soil and in the plant biomass is in the non-available or bound form, and only a small fraction (generally 1 to 8% of the total concentration) is present in the available form. Microorganisms and macro-fauna resident in agricultural fields keep converting the non-available form of nutrients to available forms, as part of their daily life, provided conditions are favorable for their survival and functioning. This activity happens continuously throughout the day and night. Successful farmers (those organic farmers producing yields comparable to chemical farms) practice a set of good agricultural practices (GAP) to create such conditions. These include on-farm production and use of plant biomass as a source of crop nutrients, having the maximum possible plant biodiversity on the farm, integration of trees and animals on fields growing annual crops, recycling of crop residues, and soil and water conservation in a scientifically sound way.

Soil is a source (S) of (O) infinite (I) life (L). It houses/supports several different forms of life, starting from photosynthesizers (plants and their roots – ‘First Trophic Level’ – the primary food formers in the soil) to animals (predators and burrowers – ‘Fifth and higher Trophic Level’). In-between are mutualistic decomposers and root feeders (bacteria, fungi, nematodes - Second Trophic Level), shredders and graders (protozoa, arthropods – Third Trophic Level), and predatory nematodes and arthropods -- Fourth Trophic Level. All these different forms of life in the soil are intricately woven as a food-web and make it “Living Soil” (http://faculty.ycp.edu/~kkleiner/envbio/envbiolabs/lab3_Lifeunderyourfeet_F12.pdf). One cup of undisturbed native soil may contain up to 200 billion bacteria, 20 million protozoa, 100,000 meters of fungi, 100,000 nematodes and 50,000 arthropods (http://www.ext.colostate.edu/mg/gardennotes/212.html). All these life forms need lot of food, and as indicated above, plants are the basic food material for them. But soils of most agricultural farms today are heavily degraded biologically and lack life, and therefore the capacity to produce high yields without agro-chemicals.

To grow plants without fertilizers and harvest a high yield, one needs to recycle all crop residues or their converted form after their economic use, back to soil. For example, if one has grown sorghum - grains are generally for human consumption and stalks for cattle, the changed form of stalks (i.e. cattle dung) should be applied to farms. But if cattle dung is needed for cooking food, no problem, its changed form, the ash, should be evenly applied to fields. In addition, one needs to grow fast growing trees as a source of biomass (food for the living beings in the soil) and fruit trees (as a source of both human and soil nutrition) on field boundaries and/or farm boundaries. All these form a local natural resource for high yield without fertilizers. It is important to note that one does not need a large tonnage of cattle dung (a myth among many farmers and even scientists) for high yield without fertilizers. Cattle dung is however needed in small quantities as a source of agriculturally beneficial microorganisms, in the same way as we need a maximum of one spoon of old but good quality curds to prepare more curds for say 10 or even 100 L of milk.

Cowdung has been reported to contain five of the total six functional groups of agriculturally beneficial microorganisms (http://www.indiawaterportal.org/node/15133, Rupela et. al. 2006). These are nitrogen fixing microorganisms, phosphate solubilizing microorganisms, plant-growth promoting microorganisms, cellulose degrading microorganisms and antagonists of disease causing microorganisms. The sixth functional group – entomopathogenic microorganisms (those with ability to kill insects) were not studied by Rupela et al. 2006, but may also be present in cowdung, and are known to be present in soils of most agricultural fields (eg, the bacterium Bacillus thuringiensis). Because fresh cowdung is an important ingredient of the different liquid manures, all these agriculturally beneficial microorganisms are present in these manures, and in larger numbers than in the cowdung itself. Eventually, these become part of the soil in large numbers and are not needed from market sources.

Use of several different recipes of liquid manures are common among organic farmers where fresh cowdung is recommended to be used as inoculum for their preparation e.g. ‘Amrit Jal’ or Jeev Amrit and Gur-Jal Amrit.  The quantity of dung needed for preparing 100 L of the manure is only 10 kg, and is enough for an area of one acre. The frequency of application may be 3 to 4-times in a crop cycle of about 120 days. One can thus manage up to 10 acres of land with just one cow. Like cowdung, compost should also be viewed as a source of agriculturally beneficial microorganisms and not as a source of N, P, K, and be evaluated accordingly. Unfortunately, the modern education system of agriculture has not internalized this knowledge of soil biology and experience of ecological farming, and still calculates the nitrogen needs of a crop per ha (if through compost) by measuring the N concentration in compost.

Chemical fertilizers, when applied to soils, negatively affect the population and/or functions of the agriculturally beneficial microorganisms. For example, effectiveness of ‘rhizobia’ – known to convert inert nitrogen in the air to the plant utilizable form of nitrogen (called nitrogen fixation) is  adversely affected by the use of nitrogenous fertilizers [Streeter 1988; Critical reviews in Plant Science 7:1–23]. The same is true with the use of synthetic pesticides and herbicides. Several publications report that fertilizers such as nitrogen and micronutrient mixtures can be applied by spraying on plant surfaces, and that get absorbed by plants, perhaps through the stomata on leaves. If applied through sprays, one would perhaps need one fifth of the levels of fertilizers recommended for soil application. It is unfortunate that this mode of meeting plant nutrient needs is not researched sufficiently, and where known, eg, as in the case of nitrogen, it is not promoted proactively either by industry or by agricultural institutions/universities and extension agencies.

Plant root system may not differentiate whether a mineral element in the soil (eg, nitrogen) is from a bag of fertilizer or from degradation of plant biomass. Cowdung and compost are merely changed forms of plant biomass.

It is not only the soil of a farm, but all the plants (including weeds) growing on a farm may have all the 30 mineral elements. Weeds are a menace but have some positive aspects as well. Some weeds are known to be rich in a particular mineral element. For example, Bathua or Chenopodium album has been reported to be rich in iron (http://nopr.niscair.res.in/bitstream/123456789/7838/1/NPR%206%281%29%206-10.pdf). It is likely that some other weeds will be rich in some other mineral elements. Up to 1.8 t of dry weed biomass per ha has been measured in rainfed areas in a longterm study at the International Crops Research Institute of the Semi-Arid Tropics (ICRISAT). Weeds are thus a potential source of different mineral elements needed for plant growth. Other noted uses of weeds are (a) enriching plant biodiversity on a farm, and (b) serve as habitat for agriculturally beneficial insects and thus help manage insect-pests on a farm. However, we need to manage weeds appropriately, as they compete with crop plants for sunlight and soil moisture. They are best removed manually or mechanically and not by use of herbicides. Herbicides, like other agro-chemicals (fungicides, insecticides) are poisons and adversely affect the different forms of soil life listed above, and should not be used. Innovative farmers in Punjab are experimenting with soft options of managing weeds – spraying with undiluted cow-urine and soap powder (2%) solution (with 2 eggs per 15 L spray tank as sticker). Spraying can be done on weeds growing between two plant rows (at least one foot apart), using nozzles with hoods.

All these are the basic facts of agricultural science and also form the core of the science and practice of organic or ecological farming.

The regular addition of plant biomass as surface mulch and that of microbial agents results in high organic matter in the soil, which leads to better soil health – making plants tolerant to drought and pests, eventually resulting in high yield.

As stated, only a small fraction (about 1 to 4% in case of nitrogen) of all the 30 mineral elements in the soil may occur in available form and rest in bound form. Interestingly, all the soil testing laboratories that are stated to help farmers (but are designed to help industry) measure only the available form of elements. Most, or all such laboratories in India, lack a facility to measure the total or bound form of any mineral element. All these laboratories are designed to promote the use of fertilizers and the soil-test results are used for generating advisories on quantity of a given fertilizer a farmer should apply to soil.

Typical soil of a farm may contain 0.1% of soil mass as total or bound form of nitrogen. Roots of a plant can access nutrients from up to 30 cm of soil depth, and this upper 30 cm layer of soil weighs about 4 million t (for every ha) and thus translates to 4000 kg of bound N in every ha. And 1.0% of the 4000 kg (ie, 400 kg) is in available form. The root system of a plant is therefore exposed to a large quantity of nitrogen. Typically less than 1% of dry mass of a cereal grain is nitrogen. If yield, say of sorghum, is 3000 kg per ha, it would remove maximum of 30 kg N per ha; but if yield is 5000 kg, it will remove about 50 kg N per ha, and this quantity is much smaller than its high quantity of nitrogen in soil (400 kg available and 4000 kg bound form). The same is true for the other mineral elements. We, however, need to facilitate a plant to access this small quantity of N (30 to 50 kg) through use of liquid manures rich in agriculturally beneficial microorganisms or through making soil – a living soil of the kind indicated above.

A plant accesses nutrients largely through its root system, and microorganisms and soil macro-fauna play an important role in this function. Published literature indicates that roots of a plant have the major role in selecting microbial life around it. For example, rhizobium of chickpea can only enter into the roots of a chickpea plant, and no other type of rhizobium species enters its roots. Some species of rhizobia have been reported to enter the root system of rice, travel to the leaves through its stem, and enhance plant growth (Applied and Environ.  Microbiol. 71:7271-7278, 2005). The population of microorganisms in the soil in close proximity of roots (called the root rhizosphere) is about 10 to 100 times bigger than that in the neighboring soil mass. There is a whole world of endophytic microorganisms (those living and functioning inside a plant system, rhizobium is only one type) that are expected to help a plant in various ways and are yet to be explored substantially. GAP promoted under ecological farming help plants access adequate nutrients needed for good plant growth and yield.
There is no doubt that conventional agriculture is based on science, but its focus is on developing research outputs that make farmers depend on the purchased inputs. Moreover, these research outputs are tuned mostly to serve the interests of input-providers/corporates. On the contrary, if we are serious in addressing the distress widely observed in the farm-sector, we need agro-technologies that empower farmers to produce inputs on-farm, which would help them reduce the cost of crop production. The challenge for us is to make the AR4D cater to this need, and also to ensure that science is articulated to the agri-practices of the organic farmers. This should help in scaling-up with confidence.

The Soil-Health Card program of the Government of India (www.agricoop.nic.in/Comsoilhealth28612.pdf‎) and of the states working on this program is presently targeted to analyse pH, EC, organic carbon, available form of nitrogen, phosphorus and potassium. As stated earlier, this program too is targeted to promote use of fertilizers and only does a lip service to ‘soil health’, while in practice it will still spoil soil health but at a slower pace than when fertilizers are used indiscriminately.  

In conclusion, the present scenario, where AR4D works more in favor of external input providers and less on the interests of farmers, every farmer should become an experimenter and grow crops using GAP (all or most of the methods stated earlier) to meet the need for crop nutrients on a small area (say one acre), and compare the results with the neighboring area where fertilizers have been applied. If yield in the experimental area without agro-chemicals is lower, he/she must visit some successful farmer of their area to find out what additional practices the successful farmer of the area is employing to get high yields. It should be noted that experience and confidence that high yields are possible without agro-chemicals lies with successful organic or ecological farmers; they generally do not lie with most agricultural scientists and the agricultural institutions/universities mandated with AR4D.


Acknowledgments: Interactions with a large number of successful organic farmers of India that shaped my understanding of organic farming/ecological farming, and English language editing by Ms Lydia Flynn, former Senior Manager, Scientific Editing and Publishing, ICRISAT, are gratefully acknowledged.