इस दीवाली पर्व पर रचना ,कला और कारीगरी के संघर्ष को अपनी उत्सवधर्मिता अर्पण करें
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२००५ में खेती विरासत मिशन की शुरुआत हुई और जिन किसानों ने उसकी नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई , जो खेती विरासत मिशन के संघर्ष के साक्षी बने , जिन्होंने खेती और पर्यावरण को ज़हरमुक्त बनाने के लिए अपना बहुत कुछ दांव पर लगा दिया था उनमें मालवा क्षेत्र के गावों में कपास की खेती करने वाले किसान ही अग्रणी थे। इन में हरतेज सिंह मेहता , विनोद ज्याणी , अमरजीत शर्मा , स्वर्ण सिंह और हरजंत सिंह प्रमुख नाम थे। जिन्हें तब पागल भी कहा गया था। जब सब सरकारें , राजनीतिक दल , कृषि विश्वविद्यालय और अधिकाँश वैज्ञानिकों ने बी टी कपास को लाने के लिए जोर लगाया हुआ था तब यही किसान थे जो कह रहे थे " हम बी टी को अपने खेतों में नहीं आने देंगे , हम ज़हरमुक्त प्राकृतिक खेती ही करेंगे।" शुरुआत के दस वर्षों तक प्राकृतिक कपास की खरीद की कोई व्यवस्था न होने के कारण यह किसान अपनी ज़हरमुक्त कपास -नरमे को खुले बाजार में ही बेचने को मज़बूर थे।
फिर २०१५ में खेती विरासत मिशन ने कुछ किसानों की प्राकृतिक खेती से उगाई देसी कपास खरीदी। कुछ समय यह कपास ऐसे ही इधर उधर पड़ी रही। फिर कभी क्रांतिकारी अमनजोत कौर द्वारा प्रशिक्षित घरेलू जैविक बगीची के लिए खड़ी की गई टोली की नायकाओं सरबजीत कौर , परमजीत कौर और संतोष कुमारी के प्रयासों से जैतो के निकटवर्ती गावों में चरखे पर सूत कातने वाली महिलाओं को ढूंढा गया और उन्हें जैविक -प्राकृतिक कपास दी गई और ऐसे त्रिंजन की नींव पड़ी। अब सूत कात कर उसके ढेर हम खेती विरासत मिशन कार्यालय में रखते जा रहे थे। तब हमारे में से किसी ने नहीं सोचा था कि हम कभी प्राकृतिक कपास से हथकरघे का कपड़ा भी बनाएंगे। परन्तु शायद नियति किसी और के आने की प्रतीक्षा कर रही थी।
प्राकृतिक कपास के चरखे पर बने सूत से कपड़ा बनने का यह महत्वपूर्ण कार्य सम्भव हो सका २०१८ में रूपसी गर्ग के खेती विरासत मिशन से जुड़ने के बाद । ग्राम स्वराज की कल्पना को साकार करने की ललक से भरी हुई कुमारी रूपसी गर्ग संयोग से ही खेती विरासत मिशन में आई और मात्र एक वर्ष बाद वो बुनकरों और कारीगरों के बीच थी। २०१८ में कपड़ा बनाने के प्रयोग शुरू हुए और २०१९ में त्रिंजन का प्राकृतिक शुद्ध खादी का कपड़ा हमारे हाथ में था और हमने उसे पहनना शुरू किया।
जब त्रिंजन शुरू हुआ तो मात्र ६ किसान प्राकृतिक खेती में कपास ऊगा रहे थे और आज ३५ से ज्यादा किसान प्राकृतिक कपास की खेती कर रहे हैं। अनेक कतिय सूत कात रहे हैं और कितने ही बुनकर हथकरघे पर विशुद्ध प्राकृतिक खादी का कपड़ा बुन रहे हैं।
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कई मित्रों ने त्रिंजन का प्राकृतिक कपड़ा देखा होगा। यह कपड़ा ज़हरमुक्त तो है ही - यह पूर्णतः देसी , गैर बी टी और प्राकृतिक खेती से उगाई कपास से ही बना है। यह कपड़ा कोई साधारण कपड़ा नहीं है। इस कपड़े को बनाने के पीछे एक मौन साधना है, एक निःस्वार्थ सेवा की भावना और ग्राम स्वराज के स्वप्न को साकार करने के लिए अपने सुख और भौतिक जीवन की सांसारिक आकाँक्षाओं को होम कर देने की 'सरफरोश तमन्ना ' है। यह पंजाब में बुनकरी की कला , उसकी कला और तकनीक को सहेजने , उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का संकल्प है। त्रिंजन का कपड़ा बुनकरों को सम्मान देने , उनकी ज्ञान परम्परा को प्रतिष्ठा देने और प्राकृतिक खेती से कपास पैदा करने के विकट चुनौती को स्वीकारने वाले किसानों का हाथ थामने की , उनके सहयोगी बनने की भीष्म प्रतिज्ञा भी है।
त्रिंजन का कपड़ा अर्थात पंजाब , हरियाणा और राजस्थान के कपास क्षेत्र को ज़हरमुक्त बनाने के भीषण संघर्ष का एक रचनात्मक आयाम है। त्रिंजन कोई उद्योग नहीं है , पैसा कमाने के लिए शुरू किया गया कोई व्यापार नहीं है यह भारत के समकालीन स्वदेशी आंदोलन का व्यवहारिक रूप है। इस के लिए अपने जीवन के सुख -सुविधा और आधुनिक शिक्षा ले कर भी किसी स्वर्णिम भविष्य के 'कैरियर ' की आहुति दे रही है हमारी रूपसी गर्ग। यह युवती एक स्वतंत्रता सैनानी की भांति सब कुछ दांव पर लगा कर ग्राम स्वराज का यह प्रयोग करने को कृतसंकल्प है। उसने अपनी ममता त्रिंजन पर ही उंडेल दी है। वह अकेले ही एक साथ ५ -६ लोगों का कार्य कर रही है। अपनी नींद , भोजन , आराम और रुचियों को भस्म करके एक तरफ किसानों से कपास की खेती के मुद्दों को सुलझाती है और कपास की खरीद को सुनिश्चित करने , किसानों को बाजार भाव से अधिक दाम देने के लिए प्रयास करती दिखती है तो दूसरी तरफ बुनकरों और कारीगरों की समस्याओं , उनकी आवश्यकताओं की चिंता भी करती है। फिर बुनकरों में हुनर के विकास एवं ओर ज्यादा अच्छे कपड़े की बुनाई के लिए डिज़ाइन और हथकरघे -खडी में निरंतर सुधार के लिए भी परिश्रम कर रही है। किसी सुदूर राज्य में अनुभवी एवं प्रतिष्ठित खादी एवं हथकरघे की पुरानी संस्था से तालमेल करना हो अथवा किसी बड़े तकनीकी आधुनिक संस्थान से सीखने के लिए कोई सहकार्य सुनिश्चित करना। सब कुछ के पीछे रूपसी ही रहती है। तीसरी तरफ चूँकि अभी सूत कातने वाले लोग कम हैं सो सारी की सारी कपास अभी चरखे से नहीं काती जा सकती , इसलिए किसी उद्योग से तालमेल करके मशीन पर प्राकृतिक कपास का ज़हरमुक्त कपड़ा बनवाने के लिए भी अपनी पूरी जान लगा देती है। कपास भेजना , उसका धागा बनवाना , फिर कपड़ा बनवाना , कपड़े का डिज़ाइन तय करना। उसका हिसाब -किताब रखना। चौथी तरफ इस कपड़े की बिक्री के लिए लोगों से बात करनी , जगह -जगह जा कर स्टाल लगाने , स्वयं जा जा कर प्रदर्शनी लगानी। काम यही खत्म नहीं होता। कपड़ों की प्राकृतिक रंगाई करवानी , लोगों को सुरुचिकर कपड़ा पहनना पसंद है सो अनेक जगह से प्रिंट और छापा वाला कपड़ा बनवाना। और अब त्रिंजन के कपड़े से रेडीमेड कुर्ते-पैजामे , सलवार-कमीज़ , शर्ट-पैंट और अन्य तरह के रेडीमेड कपड़े बनवाने लिए कितनी कितनी जगह बात करनी। इतना ही नहीं आज त्रिंजन एक बुनकर पाठशाला भी चला रहा है। जिसमें नए बुनकरों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। फ़िलहाल यह त्रिंजन पाठशाला एक छोटे भवन में चल रहा है। जहां मात्र ६ ही हथकरघे लगे हैं। पाठशाला के विस्तार का भी प्रयास हो रहा है। रूपसी के योग्य नेतृत्व में त्रिंजन अपने किसानों , कारीगरों और बुनकरों के लिए स्वयं साधन जुटा रहा है और अपना प्रशिक्षण ढांचा खड़ा करने के लिए संघर्ष कर रहा है। जैतो में बुनकरों के लिए " जीवन शाला " का निर्माण कर रहा है, जहां बुनकर पाठशाला को स्थानांतरित किया जाएगा । भवन निर्माण की निगरानी और हिसाब-किताब हमारी प्रिय रूपसि का ही दायित्व है।
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इतने परिश्रम के बाद भी सेनानी रूपसी के काम खत्म नहीं होते। उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या में चरखा चलाना तो है ही , वो घंटों-घंटों खादी के तौलिए जो बन कर आये हैं , उनके फ़ालतू धागों को काटना और किनारों के बमबल बना कर उन्हें अंतिम रूप बिक्री के लिए अपने हाथ से तैयार करती है। और फिर उन तोलियों को प्रेस किया जाता है। कभी कोई सहयोगी मिल जाये तो ठीक है अन्यथा रूपसी स्वयं ही यह परिश्रम साध्य कार्य करती है। उसका यह समर्पण देख मैं उसके प्रति श्रद्धा से भर जाता हूँ। अपने उद्देश्य के प्रति रूपसी की लगन देख कर मुझे अनायास ही कुछ महिलाओं की याद आ जाती है जिनके प्रति मैं गहरी श्रद्धा रखता हूँ। सुनीता नारायण , डा वंदना शिवा और कविता कुरुगंटी को मैंने कुछ हद तक निकट से प्रचंड परिश्रम करते देखा है और अब रूपसी को देख कर मेरी वो अवधारणा और भी दृढ़ हो जाती है है की हमारी मातृ शक्ति अपने स्वभाव , प्रकृति और संस्कार से पर्यावरण की संरक्षक है। तभी तो चिपको आंदोलन के लिए बलिदान देने वाली अमृता देवी बिश्नोई होती है तो हिमालय के चिपको आंदोलन की संस्थापक गौरां देवी होती है।
कभी कभी यह भी लगता है कि कुछ अर्थों में रूपसी का संघर्ष इन महान महिलाओं से भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। रूपसी वास्तव में एक योद्धा महिला है। पंजाब में पटियाला जिले के छोटे से गांव शम्भू तेपला के साधारण मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी और दसवीं तक उसी गांव के सरकारी विद्यालय में पढ़ने के बाद अम्बाला के एक महाविद्यालय से बायो टेक्नोलॉजी में बी.टेक. करने के बाद हैदराबाद के प्रतिष्ठित सेन्टर फॉर सेलुलर एण्ड मॉलिक्युलर बाओलोजी ( सी सी एम बी ) में जूनियर रिसर्च फेलो बनी। सी सी एम बी हैदराबाद में काम करते करते एक दिन रूपसी ने टीवी पर एक ऐसा साक्षात्कार देखा-सुना जिसने उसके मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला। जो टी वी से निकल कर उसके भीतर की चेतना और चिन्तन प्रक्रिया से एकाकार ही हो गया। मेरे लिए भी गुरु का कार्य करने वाले सुप्रसिद्ध लेखक , भारतीय ज्ञान परम्परा के महान साधक , महात्मा गाँधी के मूल्यों को अपने दैनंदिन जीवन में उतारने वाले भाई अनुपम मिश्र का यह साक्षात्कार एनडीटीवी के प्राइम टाइम में लिया था पत्रकार रवीश ने। इस साक्षात्कार में अनुपम भाई द्वारा व्यक्त भावों और सोने के गहनों में हीरे -मोती के मानिंद जड़े उनके शब्दों ने रूपसी में सी सी एम बी की प्रयोगशाला की कोठरियों से बाहर हमारे देश -हमारे गावों में फैले जीवन की ऊंचाई - गहन गहराई को मापने के लिए व्यथित कर दिया। अपने देश , अपने जीवन और उसकी सार्थकता को नए सिरे से तलाशने के लिए उसके अंतर में एक अग्निशिखा प्रज्वलित कर दी। भाई अनुपम मिश्र के शब्दों ने रूपसी को गावों की ओर चलने और अपनी जड़ों की ओर लौटने के लिए इतना प्रेरित किया कि उसने सी सी एम बी, हैदराबाद छोड़ने का निर्णय कर लिया। उसने अपने जीवन की दिशा गावों में सर्वदूर व्याप्त समाज शास्त्र , लोक विज्ञान , कला और उत्सवपरता की और मोड़ दी। रूपसी ने सीसीएमबी , हैदराबाद छोड़ने के बाद बैंगलोर के अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ( ए पी यू ) से मास्टर्स इन डेवलपमेंटल स्टडीज़ में प्रवेश लिया और वहीं महात्मा गाँधी की लिखी छोटी सी पुस्तिका "ग्राम स्वराज" रूपसी के हाथ लगी और उसके आगामी जीवन में गाँव , उनकी कला , उनके कारीगर और सादगी और भी ज्यादा गहराई से स्थापित हो गए। ए पी यू में ही उसे गाँधी जी का बॉक्स चरखा भी अपनी एक सहपाठी के पास मिला और वो उस पर हाथ आजमाने लगी। अब वो चरखा चलने वाली और गाँधी जी के ग्राम स्वराज को साकार करने के स्वप्न देखने लगी। उसने भारतीय कला परम्परा के साधक श्री रवींद्र शर्मा गुरु जी की वार्ता सुननी समझनी शुरू की और स्वयं को उसी विचार और कल्पना को समर्पित करने का मन बना लिया।
जब उसके तमाम सहपाठी कैम्पस प्लेसमेंट से बड़ी बड़ी कम्पनियों में या सरकारी संस्थानों में भारी भरकम वेतन वाली नौकरियों में जा रहे थे तब उस प्रवाह के विपरीत उसने बिना वेतन के खेती विरासत मिशन में काम करने का दुसाहसपूर्ण निर्णय लिया। त्रिंजन का दायित्व सम्भालने के बाद से रूपसी ने स्वयं को पूरी तरह कला और कारीगरी के लिए झोंक दिया। आज बहुत जगह त्रिंजन की बात होती है। त्रिंजन और रूपसी के कारण खेती विरासत मिशन और मुझे भी सम्मान मिलता है तो रूपसी पर गर्व होता है। त्रिंजन का समूचा प्रकल्प , बुनकर पाठशाला , निर्माणाधीन जीवनशाला , देसी प्राकृतिक कपास से बना विशुद्ध खादी का कपड़ा रूपसी की अनथक साधना का मूर्त रूप है। त्रिंजन की नन्ही सी कोंपल को रूपसी ने अपने खून , पसीने और आंसुओं से सींच कर एक बड़ा पौधा बना दिया है। जिसमें विराट वृक्ष बनने के सम्भावना आज सभी को दिखने लगी है। हमारे आसपास के किसान , बुनकर , कारीगर , खेती विरासत मिशन के हमारे पुराने साथी , शुभचिन्तक और सहयोगी आज रूपसी और त्रिंजन की तरफ बड़ी आशा से देख रहे हैं और रूपसी का , उसकी सहयोगी टोली में शिंदर कौर , गुरमीत कौर , रमनदीप कौर , स्नेह , रेखा रानी , राजपाल कौर , गुरविंदर शर्मा , हरनेक सिंह सभी आपने अपने ढंग से इस साधना में योगदान डाल रहे हैं। यह सभी रूपसी के सहयात्री हैं जो त्रिंजन के भविष्य को ले कर आशान्वित हैं।
त्रिंजन के वर्तमान भव्य बनते जा रहे स्वरूप में २०१९ में त्रिंजन के शुरूआती दिनों में रूपसी के दाहिने हाथ के रूप काम कर चुके हमारे युवा साथी सौरभ सैनी के अनथक परिश्रम का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। सौरभ ने वास्तव में त्रिंजन को अपने जीवन , अपनी भावनाओं और आकाँक्षाओं में ही उतार लिया था. फिर प्रबंधन से ले कर कड़ी मेहनत वाली मज़दूरी सरीखा कोई काम हो सभी को उसने हस किया. वह रूपसी का अनन्य एवं विश्वस्त सहयोगी बन कर त्रिंजन को स्थापित करने में जुटा रहा।
त्रिंजन की इस सृजन -यात्रा में उल्लेखनीय भूमिका निभाने में और त्रिंजन के स्वप्न को साकार करने के लिए अपना समय और साधन झोंक देने वालों में ढिंगावली गाँव के प्राकृतिक खेती किसान सुरेंद्र पाल सियाग , कोटकपूरा के जगतार धालीवाल और चैना गाँव के गोरा सिंह बराड़ की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सुरिंदर पाल जी रूपसी के साथ त्रिंजन का दूसरा मुख्य पहिया बन कर महान परिश्रम कर रहे हैं। फिर प्राकृतिक कपास किसान हरतेज सिंह मेहता , विनोद ज्याणी , कंवरजीत बराड़ , स्वर्ण सिंह, हरजंत सिंह , जय पाल पूनिया के जीवट और बी टी मुक्त प्राकृतिक देसी कपास उगाने की प्रतिबद्धता का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। इन किसानों की एक जिद के कारण ही त्रिंजन लगातार अपनी यात्रा में आगे बढ़ता रहा। आज त्रिंजन पंजाब में हथकरघे पर देसी खादी बुनने का प्रतीक बन गया है। यह ग्राम स्वराज , स्वदेशी और कला - कारीगरी का संरक्षण केंद्र बन गया है। इसे और सहयात्रियों की आवश्यकता है। त्रिंजन को सभी सुहृद और प्रकृति में श्रद्धा रखने वाले महानुभावों के स्नेह , आशीर्वाद और उदार हृदय से सहयोग की नितांत आवश्यकता है। रूपसी की , उसके बुनकर सहयोगी-सखियों और त्रिंजन के लिए प्राकृतिक कपास उगाने वाले खेती विरासत मिशन के किसानों की इस रचनात्मक सृजन -साधना में सहयोगी बनना हम सभी का कर्तव्य है।
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दीपावली आ रही है। हमारे में से बहुत से लोग नए कपड़े खरीदेंगे। आज त्रिंजन के पास बड़ी मात्रा में प्राकृतिक विशुद्ध खादी का कपड़ा बिक्री के लिए पड़ा है। क्या आप अपने घर, दुकान और कार्यालय के परदे , चादरें , तौलिए और अपने पहनने के लिए त्रिंजन के ज़हरमुक्त , हथकरघे पर बने कपड़े खरीद सकते हैं ? आपकी दीपावली की खरीददारी प्राकृतिक खेती को समर्पित किसानों , पारम्परिक कला और बुनकरी की धरोहर सहेजने को प्रतिबद्ध बुनकरों की सहायता कर सकती है।